आरती
( तर्ज - घर आये लछमन राम )
गुरु ! मत करिये अब बेर ,
शरण हम आन पडे ॥ टेक ||
तुम्हारो नाम पतित - पावन है ,
सुनकर आये व्दार ।
सच्चा ग्यान दिलाकर हमको ,
करदो बेडा पार ॥ श . ॥१ ॥
हम निर्भय हों तनसे ,
मनसे बुध्दि रहे गुणवान ।
देश - धर्म की सेवा करने ,
तुमही दो बरदान ॥ श.॥२ ॥
निर्मल तुम्हरो ग्यान गुरुजी !
दो सबको सन्देश ।
अखिल जगत के मानव तुमसे ,
दूर करावत क्लेश ॥ श.॥३ ॥
ना हम जाने जप - तप - साधन
ना करते है योग ।
तुम्हरे दासनकी सेवा का ,
रखते है उद्योग ॥ श ॥ ४ ॥
यह भोली भक्ती है हमरी ,
करिये प्रेम प्रदान ।
तुकड्यादास आरती गावे ,
खोकर देहगुमान ॥ श .।। ५ ।।
समाप्त
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